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यं क्रन्द॑सी॒ऽ अव॑सा तस्तभा॒नेऽ अ॒भ्यैक्षे॑तां॒ मन॑सा॒ रेज॑माने। यत्राधि॒ सूर॒ऽ उदि॑तो वि॒भाति॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम। आपो॑ ह॒ यद् बृ॑ह॒तीर्यश्चि॒दापः॑ ॥७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम्। क्रन्द॑सी॒ऽइति क्रन्द॑सी। अव॑सा। त॒स्त॒भा॒ने इति॑ तस्तऽभा॒ने। अ॒भि। ऐक्षे॑ताम्। मन॑सा। रेज॑माने॒ऽइति॒ रेज॑माने ॥ यत्र॑। अधि॑। सूरः॑। उदि॑त॒ इत्युत्ऽइ॑तः। वि॒भाती॑ति वि॒ऽभाति॑। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। आपः॑। ह॒। यत्। बृ॒ह॒तीः। यः। चि॒त्। आपः॑ ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:32» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यम्) जिस परमात्मा को प्राप्त अर्थात् उसके अधिकार में रहनेवाले (तस्तभाने) सबको धारण करनेहारे (रेजमाने) चलायमान (क्रन्दसी) स्वगुणों से प्रशंसा करने योग्य सूर्य्य और पृथिवी लोक (अवसा) रक्षा आदि से सबको धारण करते हैं, (यत्र) जिस ईश्वर में (सूरः) सूर्य्य लोक (अधि, उदितः) अधिकतर उदय को प्राप्त हुआ (यत्) जो (बृहतीः) महत् (आपः) व्याप्त जल है ही (यः) और जो कुछ (चित्) भी (आपः) आकाश है, उसको भी (विभाति) विशेष कर प्रकाशित करता हुआ प्रकाशक होता है, उस ईश्वर को अध्यापक और उपदेशक (मनसा) विज्ञान से (अभि, ऐक्षेताम्) आभिमुख्य कर देखते, उस (कस्मै) सुखसाधक (देवाय) शुद्धस्वरूप परमात्मा के लिये (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास से हम (विधेम) सेवा करनेवाले हों, उसको तुम लोग भी भजो ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस सब ओर से व्यापक परमेश्वर में सूर्य्य, पृथिवी आदि लोक भ्रमते हुए दीखते हैं, जिसने प्राण और आकाश को भी व्याप्त किया, उस अपने आत्मा में स्थित ईश्वर की तुम लोग उपासना करो ॥७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यम्) (क्रन्दसी) गुणैः प्रशंसनीये (अवसा) रक्षणादिना (तस्तभाने) धारिके (अभि) आभिमुख्ये (ऐक्षेताम्) ईक्षेतां पश्यतः (मनसा) विज्ञानेन (रेजमाने) चलन्त्यौ भ्रमन्त्यौ (यत्र) यस्मिन् (अधि) उपरि (सूरः) सूर्यः (उदितः) उदयं प्राप्तः (विभाति) विशेषेण प्रकाशयन् प्रकाशयिता भवति (कस्मै) सुखसाधकाय (देवाय) शुद्धस्वरूपाय (हविषा) आदातव्येन योगाभ्यासेन (विधेम) (आपः) व्याप्ताः (ह) किल (यत्) याः (बृहतीः) महत्यः (यः) (चित्) अपि (आपः) आकाशः ॥७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यं परमात्मानं प्राप्ते तस्तभाने रेजमाने क्रन्दसी द्यावापृथिव्याववसा सर्वं धरतो यत्र सूरोध्युदितो यद् या बृहतीरापो ह यश्चिदापः सन्ति तश्चिदपि विभाति तं तौ चाऽध्यापकोपदेशकौ मनसा अभ्यैक्षेतां तस्मै कस्मै देवाय हविषा वयं विधेमैनं यूयमपि भजत ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यत्र सर्वाभिव्यापकेश्वरे सूर्य्यपृथिव्यादयो लोका भ्रमन्तः सन्तो दृश्यन्ते येन प्राण आकाशोऽपि व्याप्तस्तं स्वात्मस्थं यूयमुपासीध्वम् ॥७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्या व्यापक परमेश्वरामध्ये सूर्य, पृथ्वी इत्यादी गोल भ्रमण करताना दिसतात. ज्या परमेश्वराने प्राण व आकाश व्यापलेले आहे व जो माणसांच्या आत्म्यात स्थित असतो अशा परमेश्वराची तुम्ही उपासना करा.